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कला एवं संस्कृति

2 Solved Questions with Answers
  • 2024

    “हालाँकि महान चोल शासक अभी मौजूद नहीं हैं लेकिन उनकी कला व वास्तुकला के क्षेत्र में उत्कृष्ट उपलब्धियों के कारण अभी भी उन्हें बहुत गर्व के साथ याद किया जाता है।” टिप्पणी कीजिये। (उत्तर 250 शब्दों में दीजिये)

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • महान चोलों का संक्षिप्त परिचय देकर उत्तर की शुरुआत कीजिये।
    • कला और वास्तुकला के क्षेत्र में उनकी उत्कृष्ट उपलब्धियों का उल्लेख कीजिये।
    • तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय:

    चोलों (8-12वीं शताब्दी ईस्वी) को भारत के दक्षिणी क्षेत्रों में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले राजवंशों में से एक के रूप में याद किया जाता है। यह शासन पाँच शताब्दियों से भी अधिक समय तक चला, जहाँ चोल कला ने द्रविड़ मंदिर कला की पराकाष्ठा देखी, जिसके परिणामस्वरूप सबसे परिष्कृत इमारतों का निर्माण हुआ।

    मुख्य भाग:

    चोलकालीन मंदिरों की विशिष्टता:

    • मंदिरों की ऊँची चारदीवारी तथा ऊँचा प्रवेशद्वार (गोपुरम)
    • गोलाकार और वर्गाकार गर्भगृह 
    • चरणबद्ध पिरामिड संरचना (विमान) 
    • अष्टकोणीय आकार में शीर्ष शिखर
    • मंदिरों की दीवारों पर जटिल मूर्तियाँ और शिलालेख। 
    • मंदिर परिसर के अंदर एक जल कुंड की उपस्थिति
    • अर्द्धमंडप, जैसे- स्तंभयुक्त मंडप। 

    मंदिर विकास में चोलों का योगदान: 

    • बृहदेश्वर मंदिर जैसी अधिक विस्तृत संरचनाएँ।
    • चोल काल में मंदिर बनाने के लिये ईंटों के स्थान पर पत्थरों का प्रयोग किया जाता था।
    • गोपुरम नक्काशी और मूर्तियों की शृंखला के साथ अधिक उत्कृष्ट तथा सुव्यवस्थित संरचनाओं के रूप में विकसित हुए। 
    • चोलों ने मंदिर वास्तुकला में परिपक्वता और भव्यता लाकर विस्तृत पिरामिडनुमा मंज़िलें बनवाईं। उदाहरणार्थ, तंजावुर का शिव मंदिर
    • मंदिरों के शीर्ष पर सुंदर शिखर होते हैं जिन पर विस्तृत नक्काशी की जाती है। उदाहरणार्थ- गंगईकोण्डचोलपुरम मंदिर। 
    • पल्लवों द्वारा शुरू किये गए मंडप के प्रवेश द्वार पर द्वारपाल, चोलकालीन मंदिरों की एक अनूठी विशेषता बन गए।
    • मंदिरों को कलात्मक पत्थर के खंभों से सजाया गया था, जिनमें लंबी शाखाएँ और पॉलिश की गई विशेषताएँ थीं। उदाहरण: ऐरावतेश्वर मंदिर में पहियेदार रथ की नक्काशी।

    चोलकालीन मूर्तिकला: 

    • चोलकालीन काँस्य मूर्तियाँ, जो अपनी असाधारण मूर्तिकला के लिये जानी जाती हैं, लुप्त मोम तकनीक का उपयोग करके बनाई गई थीं। उदाहरण के लिये, तांडव मुद्रा में नटराज की मूर्ति।
    • उत्तर चोलकाल में मूर्तिकला में भूदेवी (पृथ्वी देवी) को भगवान विष्णु की छोटी पत्नी के रूप में प्रदर्शित किया गया है। 
    • चोलकालीन मंदिर मूर्तियों में आकर्षक अलंकरण, सुंदर सजावट देखने को मिलती है। उदाहरणार्थ, बृहदीश्वर मंदिर, तंजावुर।
    • पार्वती चित्रण की स्वतंत्र मूर्तियों में उन्हें सुंदर त्रिभंगा मुद्रा में दर्शाया गया है।

    निष्कर्ष: 

    चोल राजवंश के संरक्षण, भव्य मंदिरों, वास्तुशिल्प नवाचारों और मूर्तिकला कला को समर्थन के कारण यूनेस्को ने उनके मंदिरों को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्रदान की है। 

    …………………………………..

    स्रोत:

    https://www.drittiias.com/daily-updates/daily-news-analyse/chola-dynasty-1

    https://www.drittiias.com/mains-practice-question/question-7873

  • 2024

    दक्षिण भारत में कला व साहित्य के विकास में काँची के पल्लवों के योगदान का मूल्यांकन कीजिये। (उत्तर 150 शब्दों में दीजिये)

    हल कने का दृष्टिकोण:

    • दक्षिण भारत में पल्लवों के शासनकाल का उल्लेख करते हुए इसका परिचय दीजिये।
    • मंदिर कला, वास्तुकला और मूर्तिकला में पल्लवों के योगदान पर चर्चा कीजिये। साहित्य में पल्लवों के योगदान का भी उल्लेख कीजिये।
    • तद्नुसार उचित निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय:

    पल्लवों ने तीसरी से 9वीं शताब्दी ई. तक शासन किया और वे सातवाहनों के सामंत थे। पल्लव राजा दक्षिण भारतीय कला, वास्तुकला और साहित्य के महान संरक्षक थे।

     कला में पल्लवों का योगदान:

    • मंदिर वास्तुकला: पल्लवों ने चट्टान काटकर बनाए गए मंदिरों की शुरुआत की और वास्तुकला की द्रविड़ शैली की शुरुआत की, जो गुफा मंदिरों से लेकर अखंड रथों और अंततः संरचनात्मक मंदिरों तक विकसित हुई, जिनका विकास चार चरणों में हुआ।
      • महेंद्रवर्मन प्रथम ने चट्टानों को काटकर बनाए गए मंदिरों की शुरुआत की।
      • मामल्लपुरम में अखंड रथ और मंडप, जिसका श्रेय नरसिंहवर्मन प्रथम को दिया जाता है, जैसे- पंचपनाडव रथ।
      • राजसिम्हा ने नरम बलुआ पत्थर से निर्मित संरचनात्मक मंदिरों की शुरुआत की। उदाहरण के लिये, काँची में कैलाशनाथ मंदिर।
      • बाद के पल्लवों द्वारा निर्मित संरचनात्मक मंदिर। उदाहरण के लिये, वैकुंडपेरुमल मंदिर।
    • मूर्तिकला: पल्लवों ने मामल्लपुरम में ओपन आर्ट गैलरी और गंगा अवतरण जैसी मूर्तिकला को काफी उन्नत किया। 
    • सित्तन्नवसाल की गुफाओं में उत्कीर्णित चित्रकारी उन्हीं की थी।

    साहित्य में पल्लवों का योगदान:

    • पल्लव राजा महेंद्रवर्मन प्रथम ने संस्कृत साहित्य के संरक्षक के रूप में ‘मत्तविलासप्रहसन’ नाटक की रचना की।
    • नयनार और अलवारों के योगदान से तमिल साहित्य का विकास हुआ।
    • पेरुन्देवनार ने नंदीवर्मन द्वितीय के अधीन महाभारत का तमिल में ‘भारतवेणवा’ के रूप में अनुवाद किया।

    निष्कर्ष:

    काँची के पल्लवों ने स्थापत्य, मूर्तिकला और साहित्य में अपने योगदान के माध्यम से एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत स्थापित की। मंदिर स्थापत्य में उनके नवाचारों और साहित्य के संरक्षण ने न केवल दक्षिण भारतीय कला को प्रभावित किया, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक इतिहास पर भी एक स्थायी प्रभाव डाला।

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